Raipur-सांसारिक जीवन की मोह माया त्यागकर प्रभु की भक्ति करते हुए अंतिम सांस लेने की इच्छा से 70 वर्षीय भंवरी बाई कोठारी ने संथारा का संकल्प लिया। नयापारा स्थित जैन भवन में प्रकाश मुनि महाराज की शिष्या महासती दिव्यांशी ने जैन धर्म के नियमों के तहत संथारा ग्रहण करने का संकल्प दिलाया। संथारा का संकल्प लेने के साथ ही 2 जनवरी से भंवरी बाई ने अन्न जल का त्याग कर दिया। वे तीर्थंकर परमात्मा की भक्ति में रम गईं हैँ। अब वे जीवन की अंतिम सांस तक अन्न ग्रहण नहीं करेंगी।
संथारा यानी जीते जी मृत्यु को अपना लेने की विधि है। वे साध्वियों के मार्गदर्शन में मंत्रोच्चार करके जीवन के अंतिम एक-एक पल व्यतीत कर रहीं हैं। उनका दर्शन करने परिवार के लोग पहुंच रहे हैं। मूलतः राजस्थान के खीचन गांव निवासी स्व: रानुलाल गोलछा की तृतीय पुत्री भवरी बाई कोठारी (धर्मसाहिका शांतिलाल कोठारी, रायपुर) ने 2 जनवरी को दोपहर 3.40 बजे ज्ञानगछ अधिपति श्री प्रकाश मुनी म.सा. की अज्ञानवीर्ति महासती श्री दिव्यांशी जी म.सा. आदि ठाणा पांच के मुखारविंद से संथारा का पचखान महावीर भवन, नयापारा, रायपुर में कराया गया। वे पारसमल, स्व खेमराज, जसराज प्रकाशचंद, शांति लाल गोलछा की बहन व ललित कोठारी प्रदीप कोठारी की माता हैं।
क्या है संथारा
जैन धर्म की महापवित्र प्रथा है संथारा। इसमें जीवन से विरक्ति हो जाती है और धर्म नियमों के अनुरूप व्रत करके पूरी तरह से अन्न का त्याग करके जीवन को प्रभु के चरणों में समर्पित कर दिया जाता है। एक तरह से मृत्यु को महोत्सव की तरह मनाया जाता है।
जैन धर्म में सबसे पुरानी प्रथा मानी जाती है संथारा प्रथा (संलेखना)। जैन समाज में इस तरह से देह त्यागने को बहुत पवित्र कार्य माना जाता है। इसमें जब व्यक्ति को लगता है कि उसकी मृत्यु निकट है तो वह खुद को एक कमरे में बंद कर खाना-पीना त्याग देता है। जैन शास्त्रों में इस तरह की मृत्यु को समाधिमरण, पंडितमरण अथवा संथारा भी कहा जाता है।
इसका अर्थ है- जीवन के अंतिम समय में तप-विशेष की आराधना करना। इसे अपश्चिम मारणान्तिक भी कहा गया है। इसे जीवन की अंतिम साधना भी माना जाता है जिसके आधार पर साधक मृत्यु को पास देख सबकुछ त्यागकर मृत्यु का वरण करता है। जैन समाज में इसे महोत्सव भी कहा जाता है।
जैन धर्म के शास्त्रों के अनुसार यह निष्प्रतिकार-मरण की विधि है। इसके अनुसार जब तक अहिंसक इलाज संभव हो, पूरा इलाज कराया जाए। मेडिकल साइंस के अनुसार जब कोई अहिंसक इलाज संभव नहीं रहे, तब रोने-धोने की बजाय शांत परिणाम से आत्मा और परमात्मा का चिंतन करते हुए जीवन की अंतिम सांस तक अच्छे संस्कारों के प्रति समर्पित रहने की विधि का नाम संथारा है। इसे आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। इसे धैर्यपूर्वक अंतिम समय तक जीवन को ससम्मान जीने की कला कहा गया है।
यूं समझें संथारा प्रथा को
जैन धर्म के अनुसार आखिरी समय में किसी के भी प्रति बुरी भावनाएं नहीं रखीं जाएं। यदि किसी से कोई बुराई जीवन में रही भी हो, तो उसे माफ करके अच्छे विचारों और संस्कारों को मन में स्थान दिया जाता है। संथारा लेने वाला व्यक्ति भी हलके मन से खुश होकर अपनी अंतिम यात्रा को सफल कर सकेगा और समाज में भी बैर बुराई से होने वाले बुरे प्रभाव कम होंगे। इससे राष्ट्र के विकास में स्वस्थ वातावरण मिल सकेगा। इसलिए इसे इस धर्म में एक वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक विधि माना गया है।