राजनीति

क्या सेक्स वर्कर्स का जीवन बदलने वाला है?

ऋत्विक दास
पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की बेंच ने यौनकर्मियों की गरिमा सुनिश्चित करने का एक बड़ा आदेश दिया है। अदालत ने यह फैसला साल 2011 में कोलकाता में एक सेक्स वर्कर के संबंध में दर्ज हुई आपराधिक शिकायत पर स्वत: संज्ञान लेते हुए सुनाया है। लेकिन क्या यह फैसला यौनकर्मियों की उस गरिमा को वाकई बचा पाएगा, जिसकी सुध आज तक न तो सरकारों ने ली है और ना ही समाज ने?

सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि अगर यौनकर्मी स्वेच्छा से इस काम में है, तो पुलिस को उसे परेशान नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही अदालत ने यौनकर्मियों की संतानों के संरक्षण के भी निर्देश दिए हैं। जजमेंट में वेश्यालय चलाने को आपराधिक श्रेणी में ही रखा गया है, जिसका कि आईटीपी एक्ट 1956 में जिक्र है। उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यौनकर्मियों का शोषण कम होगा, साथ ही उनकी सुरक्षा के साथ ही उनके मानवीय अधिकार भी बहाल होंगे। लेकिन भारत में औरतों के साथ ही किन्नर और समलैंगिक यौनकर्मी भी काम करते हैं, जिन पर अदालत में कोई चर्चा नहीं हुई।

कोर्ट ने पुलिस और राज्य सरकारों को कई दिशा-निर्देश दिए। साथ ही कार्यशाला लगाकर इनके अधिकार बताने को भी कहा है। यहां पर यह कहने की जरूरत है कि राज्य या केंद्र सरकारें जब भी कोई नियम या कानून बनाती हैं, वे कभी भी यौनकर्मियों को सीन में नहीं रखतीं। नोटबंदी और नागरिकता कानून जैसे मामलों में ही नहीं, कोरोना महामारी के दौरान भी यह देखने में आया कि कैसे सरकारें यौनकर्मियों को भूली रहीं। सरकारों की छोड़िए, अदालत ने जिस मीडिया को नए दिशा-निर्देश दिए हैं, उस तक ने यौनकर्मियों की सुध नहीं ली। जाहिर है कि यौनकर्मियों को लेकर समाज को अभी और संवेदनशील होना होगा, और ऐसा तभी होगा जब समाज की मानसिकता प्रगतिशील हो। जिस तरह की कूपमंडूकता हमारे समाज में है, उसे देखते हुए ऐसा कब तक हो पाएगा- किसी को नहीं पता।

अपने फैसले में अदालत ने यौनकर्मियों की संतान पर उनके अधिकार की बात तो की, लेकिन पिता के नाम के बिना एक पितृसत्तात्मक समाज में अपनी संतान को पालने में आने वाली मुसीबतों पर चर्चा जरूरी है। यौनकर्मी अपनी संतान को अपने काम से दूर रखना चाहते हैं, उन्हें एक अच्छा भविष्य देना चाहते हैं। लेकिन जहां कागज के चंद टुकड़ों से व्यक्ति की नागरिकता तय किए जाने की बात हो रही हो, वहां ये बच्चे किस प्रकार अपना जीवन निर्वाह कर पाएंगे?

पीटा एक्ट के तहत वेश्यालय चलाना अपराध है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि जहां पर यौनकर्मी समूह में रहते है, वहां वे अधिक सुरक्षित रहते हैं। यौनकर्मियों के बीच अपने काम के दौरान हमने ऐसी कई घटनाएं देखीं, जहां यौनकर्मी को ले जाकर उनका सामूहिक बलात्कार किया गया। कई घटनाओं में पैसे नहीं दिए गए और मांग करने पर यौनकर्मी के साथ जमकर हिंसा की गई। ‘उत्तर प्रदेश राज्य बनाम कौशल्या एंड अदर’ मुकदमे की सुनवाई हो या मुंबई में चल रहा यौन कर्मियों का आंदोलन, हर जगह यौन कर्मियों की प्रमुख मांग उनके काम करने और रहने के क्षेत्र को लेकर रही है।

यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि अपने देश में कई ऐसे स्थान और समूह हैं जहां पारंपरिक रूप से यौन कार्य होता है। ये जगहें महानगरों से काफी दूर हैं। ऐसे में उन यौनकर्मियों तक उनके अधिकार की जानकारी और उनकी अपने अधिकारों तक पहुंच को सुनिश्चित किए जाने का सवाल भी बाकी है।

यौनकर्मियों के प्रति आम लोगों का दृष्टिकोण अमूमन घृणा से भरा होता है। ऊपर से अगर वह स्वेच्छा से यौन कार्य में है तो बातें बनते-बनते कहां तक पहुंचती हैं, हर कोई जानता है। अब सवाल यह है कि सरकारी विभाग के कर्मचारी और पुलिस भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं। तो क्या फैसले में उनके अंदर संवेदनशीलता और मानसिकता को बदलने पर कोई बात नहीं होनी थी? बेशक सुप्रीम कोर्ट का फैसला यौनकर्मियों को गरिमा का जीवन देने में मदद करेगा, लेकिन सिर्फ एक फैसले से हालात नहीं बदलने वाले। अभी यौनकर्मियों का संघर्ष काफी लंबा है।

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं

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