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ग्लासगो पर टिकी नजरें, दुनियाभर के दिग्गज नेता यहीं देंगे पर्यावरण संरक्षण की मुहिम को धार

पूरी दुनिया की नजरें इस समय स्काटलैंड के ग्लासगो शहर पर टिकी हुई हैं। यहां दुनिया भर के दिग्गज नेता पर्यावरण संरक्षण की मुहिम को धार देने के लिए जुटे हैं। ऐसे में इन आयोजनों का सिंहावलोकन आवश्यक हो जाता है कि उनसे क्या हासिल हो सका है। वर्ष 1972 में पर्यावरण चेतना एवं पर्यावरण आंदोलन के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्टाकहोम (स्वीडन) में दुनिया के सभी देशों का पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया गया। उसका मुख्य विषय लगातार हो रहे पर्यावरण क्षरण, मौसम परिवर्तन एवं आपदाओं पर नियंत्रण के प्रति ध्यान केंद्रित करना था।

फिर संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1983 में नार्वे के तत्कालीन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति ने 1987 में ‘अवर कामन फ्यूचर’ नाम से रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें इस बात पर बल दिया गया कि वर्तमान विकास का माडल आगे जाकर टिकाऊ साबित नहीं होगा, जिससे हमारा भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। इसी रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 1989 में सभी देशों के साथ एक सम्मेलन बुलाने का आग्रह किया।

वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में संयुक्त राष्ट्र द्वारा एक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसे पृथ्वी सम्मेलन या रियो सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है। उसका मुख्य उद्देश्य ग्रीनहाउस गैस की सांद्रता में कमी से संबंधित था। ऐसे सम्मेलनों की कड़ी में कान्फ्रेंस आफ पार्टीज-21 (कोप-21) 2015 का आयोजन पेरिस में हुआ जिसे ‘पेरिस समझौता’ के नाम से भी जाना जाता है। इस सम्मेलन का मुख्य लक्ष्य यह रखा गया कि इस सदी के अंत तक औसत वैश्विक तापमान की वृद्धि उद्योग पूर्व स्तर से दो डिग्री सेल्सियस या यदि संभव हो तो 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न होने पाए।

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इसी तरह 2016 में कोप-22 मराकेश, 2017 में कोप-23 बान (जर्मनी), 2018 में कोप-24 काटोवाइस (पोलैंड) में आयोजित किया गया। कोप-25 का आयोजन 2019 में मैडिड (स्पेन) में हुआ। वर्ष 2020 में कोप-26 होना था, परंतु कोरोना के कारण स्थगित हो गया।नि:संदेह इस समय पूरा विश्व जिन सबसे बड़ी चुनौतियों से जूझ रहा है, उनमें से पर्यावरण क्षरण और जलवायु परिवर्तन प्रमुख हैं। वास्तव में ये दोनों मसले अंर्तसबंधित हैं। ऐसे में सभी देशों की यह साझा जिम्मेदारी है कि वे मिलकर इसका कोई समाधान निकालें। ग्लासगो से यही उम्मीदें बंधी हैं।

इसके साथ ही यह भी उम्मीद करनी चाहिए कि पेरिस समझौता जिस अपेक्षित स्तर पर आगे नहीं बढ़ पाया वह नियति ग्लासगो में बनने वाली किसी संभावित सहमति की न हो। इसमें शामिल होने जा रहे नेताओं को स्मरण रखना होगा कि पृथ्वी का अस्तित्व बचा रहेगा तभी सब कुछ संभव है। इसके लिए जो आवश्यक हो उसे करने में कोताही न की जाए।

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