बस्तरडायरी #गौरनृत्य” – 【घोटपाल कोया कुटमा आदिवासी समाजिक कार्यक्रम के दौरान 】 आलेख:- मेघ प्रकाश शेरपा 【घुमक्कड़】
बस्तर क्षेत्र कला और संस्कृति का धनी है। यहाँ विभिन्न प्रकार के नृत्य एवं संगीत विधा विद्यमान है। जिसे यहाँ के जनजातीय समाज ने पुरातन काल से सहेजा हुआ है। और आगे भी इस परंपरा निर्वहन किया जाता रहेगा। चूंकि नृत्य ,संगीत, बाजे, गीत,रेला, पाटा यह बस्तर जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा है।
और दैनिक जीवन मे इनके अनेक महत्वपूर्ण मायने है जो जनजातीय समाज पूरी निष्ठा के साथ इसे अपने आने वाली पीढ़ी को देता आ रहा है। यही परम्परागत संस्कृति और ज्ञान का हस्तांतरण ही आदिम जनजातीय समाज की कुंजी है। जिसकी वजह से आज भी प्रकृति पुत्र के रूप में जाने जाते है। यह अन्य समाज मे देखने को बहुत कम मिलते है।
आज तेजी से बढ़ते ,दौड़ैत भागते भारत के अन्य समाज मे आधुनिकता इस कदर हावी होती जा रही की पुराने रीति रिवाज,समाजिक बन्धन और संस्कृति टूटते छूटते जा रहे है। इस वजह से सामाजिक और पारिवारिक मूल्य में कमी आ रही है। इसके कई दुष्परिणाम भी देखने को मिल रहे है।
खैर ये समसामयिक विषय है जिस पर कभी और भी लिखूंगा।
गौर नृत्य आदिवासी जनजातीय परम्परा का अभिन्न अंग है। यह कई सामाजिक आयोजनों, मेले,मड़ई, जतरा,कोय कुटमा ,एवं अन्य उत्सवों में किया जाता है। इसका एक अपना ही रंग है।
आदिम जीवन शैली में जन्म से लेकर मरण तक के लिए गीत,रस्म रिवाज और विधान सदियो से निभाये जाते रहे है। विश्व के अन्य जनजातीय समाज मे भी यह समानता को देखने को मिलती है। कई प्रकार गीत जो गोंडी,हल्बी,भतरी आदि स्थानीय बोलियों में गाये जाते है, जो सुनने में कर्णप्रिय है जैसे …
रे रेला यो रे रेला ,रे रेला यो रे रेला….रेला रे रेला संगी रेला.रे रेला………….
सभी गीत अपनी मिठास लिए हुए है।
गौर नृत्य भी अपनी एक अलग मिठास लिए हुए है। जनवरी का महीना लग चुका है ,महुए और आम के पेड़ों पर फूल लगने वाले है। आम में कुछ बौर आ गए है। इनकी खुसबू जंगल और रास्तो के किनारे मादकता फैलाने लगे है। फरवरी के अंत आते आते महुए की मादकता पूरे गमक के साथ वातावरण को लबरेज कर देगी।
ठीक उसी समय शुरू होगा मेला,मड़ई और जात्रा। बस्तर के सातों जिलों में यह समय काल किसी बड़े वार्षिकोत्सव से कम नहीं। धान कटाई के बाद छत्तीसगढ़ के सभी जिलों में यह सिलसिला शुरू हो जाता है।
बस्तर क्षेत्र में इसकी महक अलग है।
मेले ,मड़ई , में देवी देवताओं का आदर, सम्मान उनका श्रृंगार उनकी मांग को पूरा करना ये सभी महत्वपूर्ण है। उन्हें पूरे रस्मो रिवाज के साथ मान करना उसके बाद मांदर, ढोल और अन्य बस्तरिया वाद्ययंत्रों की थाप और धुन में नचाया जाना अद्भुत है।
हर साल की तरह इस साल भी घोटपाल मेला,दन्तेवाड़ा जिले में मुख्य आयोजनो में से एक है। जिसमे अद्भुत चीजे देखने को मिलेंगी।
मेरी रुचि गौर नृत्य की बारीकियों में है।इनकी धुन में आप थिरक सकते हैं। पर शर्त ये है कि आपको लय और ताल में नृत्य आना चाहिए तभी आप सामंजस्य बिठा पाएंगे।
सामान्य सी महसूस होने वाली धुन …धम धम धधम धम……यूनिक है। इस सामान्य धुन में अनेक “कदम तालों” के साथ नृत्य किया जाता है। जो कहि कहि पर जसपुरिया नृत्य जैसा भी लगता है।
समूह में नृत्य करते समय कमर के पीछे से एक दूसरे का हाथ इस प्रकार थामा जाता है की किसी भी प्रकार की असहजता महिला या पुरूष को न हो। यह बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ है। जो नृत्य के दौरान बहुत महत्वपूर्ण है। जिसे हर नर्तक दल बखूबी निभाता है। जिससे लंबे समय तक नृत्य के लिए सामंजस्य बना रहता है। और एक लय में कदम मिलाते हुए नृत्य का समूह विशाल हो जाता है जो देखते ही बनता है सायद यही पर जनजातिय समाज मे लिंग भेद दूर हो जाता है। जहां पर स्त्री को वविशेष दर्जा स्वमेव प्राप्त हो जाता है।
बस्तर के आयोजनो में नृत्य से पहले कई विशेष पूजा अर्चना आराध्य से की जाती है उसके उपरांत कार्यक्रम को सफल बनाने की कामना को जाती है। गौर नृत्य अपने इष्ट के करीब जाने और उन्हें अपने भाव प्रकट करने का भी एक माध्यम है। महुआ, सल्फी, लांदा एवं अन्य बस्तरिया पेय सामान्य रूप से आयोजनो का हिस्सा होते है जो परम्परा का अभिन्न अंग है। थोड़ी मादकता गौर नृत्य को और भी मनमोहक बना देती है।
गौर सिंग मुकुट देखने में जितना सुंदर और भव्य लगता है उसके पीछे उसके निर्माण में लगने वाले समय,संसाधन, और लागत का महत्वपूर्ण योगदान होता है। आज गौर जंगलों में नगण्य हो गए है। उनके सींग के स्थान पर अब लकड़ी के हिरण वाले मुकुट देखे जा रहे है। गौर सिंग मुकुट बनाने की प्रक्रिया भी बहुत रोचक है। उस पर भी कभी एक लेख लिखूंगा अगर कमेंट के माध्यम से इच्छा प्रकट करे।
गौर मुकुट में मुर्गे का पंख, मयूर पंख,कौड़ियों की माला,कांच दर्पण, रंगीन रेशम , आदि के साथ गौर सिंग का प्रयोग किया जाता है। जिसे बनाने के लिए एक निश्चित राशि एक निश्चित व्यक्ति को ही दी जाती है। जो एक निश्चित समय में ही बनती है।
गौर नृत्य के दौरान महिलाओं की वेशभूषा भी बहुत सुंदर होती है सिर पर एक चमकीली मुकुट ,हाथ मे लोहे की बनी एक छड़ी जिसे जमीन पर पटकने से एक लय में आवाज आती है ,गले मे रुपिया माला, और कंठ के पास स्वर्ण रंग का माला सुसज्जित होता है।
आजकल परम्परागत ढोल के साथ साथ आधुनिक ड्रम बाजे ने एंट्री ली है जोकि एक बदलाव की ओर इशारा कर रही है। ज्यादा अच्छा होता कि परम्परागत वाद्ययंत्र ही होते हैं।
पुरुषों के सिर पर गौर सिंग मुकुट और युवाओं के सिर पर साफा ,इस पर मुर्गे और मयूर का पंख होता है,गले मे देव सियाड़ी के बड़े बीजो का माला सुसज्जित होता है,कमर में मुख्यतः लूंगी ही पहनी जाती है। गले मे कहि कहि रुपिया माला भी पहना जाता है।
गौर नृत्य एक विशाल समूह में आपसी सामंजस्य का प्रतीक है,जिसमे जनजातीय समाज की एकता और प्रेम पलते हुए दिखाई देती है। यह अद्भुत है । इस पर आगे और भी लिखने की इच्छा है ,आगे क्रमशः ……..
आलेख:- मेघ प्रकाश शेरपा (घुमक्कड़✍️✍️✍️✍️)