अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: एक मंथन
अंकित भोई ‘अद्वितीय’
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: एक मंथन
भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा लिखा गया संविधान है। संविधान में हमारे देश को ‘सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ की संज्ञा दी गयी है। संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 के अन्तर्गत प्रत्येक भारतीय नागरिक को 6 मौलिक अधिकार प्रदान किये गए हैं। पहले इनकी संख्या 7 थी परन्तु वर्तमान में इनकी संख्या 6 है। इनमें से ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह आलेख इसी अधिकार पर आधारित है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या वाक स्वतंत्रता किसी व्यक्ति या समुदाय द्वारा अपने मत और विचार को बिना प्रतिशोध, अभिवेचन या दंड के डर के प्रकट कर पाने की स्थिति होती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने भावों और विचारों को व्यक्त करने का एक राजनीतिक अधिकार है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति न सिर्फ विचारों का प्रचार-प्रसार कर सकता है, बल्कि किसी भी तरह की सूचना का आदान-प्रदान करने का अधिकार रखता है। हालांकि, यह अधिकार सार्वभौमिक नहीं है और इस पर समय-समय पर युक्ति-नियुक्ति निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। राष्ट्र-राज्य के पास यह अधिकार सुरक्षित होता है कि वह संविधान और कानूनों के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किस हद तक जाकर बाधित करने का अधिकार रखता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में, जैसे- बाह्य या आंतरिक आपातकाल या राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता सीमित हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र की सार्वभौमिक मानवाधिकारों के घोषणा पत्र में मानवाधिकारों को परिभाषित किया गया है। इसके अनुच्छेद 19 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा जिसके तहत वह किसी भी तरह के विचारों और सूचनाओं के आदान-प्रदान को स्वतंत्र होगा।
वर्तमान परिदृश्य में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार विकृत होता हुआ प्रतीत हो रहा है। देश का एक वर्ग अभिव्यक्ति की आजादी का अपने सुविधानुसार उपयोग कर रहा है जो प्रत्यक्ष तौर पर तुष्टिकरण से जुड़ा हुआ है। जाति, धर्म निजी आस्था का मुद्दा है एवं सभी धर्मों के आराध्यों से सार्वजनिक आस्था जुड़ी हुई है, लिहाजा प्रत्येक भारतीय को इन पर आपत्तिजनक टिप्पणी और ईशनिंदा से बचना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी की सार्थकता तभी है जब इसमें सभी धर्मों के बारे में शालीनता, सम्मान और सद्भाव का उद्गार हो। अत्यंत विचारणीय है कि हमारे भारत में मजहबी उन्माद फैलाने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया है। देश के अनेक राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चैनलों में जिस तरह से विभाजनकारी धार्मिक मुद्दों पर दो मजहबों के बीच हिंसा भड़काने और वैमनस्य बढ़ाने वाले निरर्थक बहस का चलन बढ़ा है वह देश के सांप्रदायिक सौहार्द के लिए कदापि उचित नहीं है। हाल ही में देश में एक टीवी एंकर की भूमिका विवादास्पद रही और विवाद इतना बढ़ गया पूरा देश कुछ दिनों के लिए थर्रा उठा।
भविष्य में इस तरह की स्थिति पुनः निर्मित ना हो, इसके लिए टीवी चैनलों, एंकरों और पार्टी प्रवक्ताओं के लिए एक लक्ष्मण रेखा निश्चित करने की महती आवश्यकता आन पड़ी है। वर्तमान में सोशल मीडिया आम आदमी की जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है लेकिन देश में सांप्रदायिक नफरत फैलाने और धार्मिक हिंसा को भड़काने में इसकी नकारात्मक भूमिका सामने आई है जिस पर सरकार और सुप्रीम कोर्ट में आने के बाद चिंता भी जाहिर की है। इंसान जैसा बीजारोपण करता है वैसा ही फल खाता है। देश के प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों को पहल करने की आवश्यकता है कि बाल्यावस्था से ही बच्चों में सभी जाति,धर्म, समुदाय के प्रति परस्पर सम्मान भाव का बीज बोया जाये। यदि बच्चों को बचपन से ही केवल एक धर्म के रूढ़ियां और कट्टरता की शिक्षा दी जाएगी और यह बताया जाएगा कि मेरा ही धर्म या मत दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है तो भला वह दूसरे धर्म का सम्मान कैसे कर पाएगा? कहा भी गया है कि मानव धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित विनयपत्रिका में आम जनमानस के हितार्थ कुछ पंक्तियां प्रसिद्ध हैं-
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥
अंकित भोई ‘अद्वितीय’
सहायक प्राध्यापक (हिंदी)
शासकीय नवीन महाविद्यालय, पिरदा, (छ.ग.)
दूरभाष- 9685315484