अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव का वीरवार को लंका दहन के साथ समापन हो जाएगा। अष्टांग बलि के बाद देवी-देवता देवालयों को प्रस्थान करेंगे। सात दिवसीय दशहरा उत्सव का इस बार कोरोना महामारी के कारण न तो व्यापारिक गतिविधियां हुई और न ही सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस बार दशहरा उत्सव में देवमहाकुंभ ही नजर आया। लंका दहन की चढ़ाई में इस वर्ष अधिष्ठाता रघुनाथ जी के साथ कई देवी-देवता शिरकत करेंगे। लंकाबेकर में माता हिडिंबा और राज परिवार के सदस्यों द्वारा लंका दहन की रस्म निभाई जाती है। ढालपुर के लंका बेकर में होने वाले लंका दहन में सभी प्रक्रिया को पूरा किया जाएगा।

इसके लिए जय श्रीराम के उद्घोष के साथ राजपरिवार की दादी कहे जाने वाली माता हिडिंबा सहित अन्य देवियां भी रस्म के लिए आयोजन स्थल पर पहुंचेंगी। लंका पर विजय पाने के बाद भगवान रघुनाथ देवी-देवताओं के साथ अपने मंदिर की ओर रवाना होते हैं। लंका दहन की परंपरा का निर्वहन करने के बाद रघुनाथ का रथ वापस रथ मैदान की ओर मोड़ा जाता है।

इस दौरान जय सिया राम, हर-हर महादेव के जयकारों के साथ रथ को रथ मैदान में पहुंचाया जाता है। भगवान रघुनाथ रथ मैदान से पालकी में रघुनाथपुर जाएंगे। भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार महेश्वर सिंह ने कहा कि इस बार भी हर बार की तरह परंपरा के अनुसार लंका दहन होगा।
नहीं जलते रावण, कुंभकर्ण व मेघनाद के पुतले
कुल्लू दशहरा उत्सव में रावण, कुंभकर्ण व मेघनाद के पुतले नहीं जलाए जाते। उत्सव के सातवें दिन लंका बेकर में अष्टांग बलि के साथ तीन झाड़ियों को जलाया जाता है। इन्हें ही रावण, कुंभकर्ण व मेघनाद का प्रतीक माना जाता है। कुल्लू में काम, क्रोध, मोह और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर बलि दी जाती है। यहां रावण दहन नहीं, बल्कि लंका दहन की परंपरा है।

समापन पर नहीं होगा मुख्य अतिथि
अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव में इस बार समापन अवसर पर कोई भी मुख्य अतिथि मौजूद नहीं होगा। इससे पूर्व दशहरा उत्सव का शुभारंभ हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल करते हैं और समापन पर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेते थे। पिछली बार कोरोना के चलते और इस बार चुनाव के लिए लगी आदर्श आचार संहिता के चलते परंपरा टूट गई है। दो साल से इस तरह की परंपरा को नहीं निभाया गया। इससे पूर्व वर्ष 1971-72 में भी गोलीकांड के कारण दशहरा उत्सव का आयोजन ही नहीं हुआ था।